कैसे गुजरा वो एक दिन,
एक दिन दोस्तों के बिन !
शुरू हुआ बिना शोर के,
ख़त्म हुआ शरारतो के बिन !
…वो एक दिन दोस्तों के बिन…
याद किया उन यारो को,
यादो को, यारो के बिन !
कुछ गुजरे हुए उजले दिनों की,
बातो को, खुराफातो को, आफतो के बिन !
…कैसे गुजरा वो एक दिन…
…एक दिन दोस्तों के बिन …
ऊँचे, नाटे, दुबले, मोटे
हर किस्म के नमूनों को बीन
रंग जमाती थी टोली मेरी
टुएशन हो या टपरी केन्टीन
ना था मैं अलादीन उनका
ना थे वो मेरे जिन्न
फिर क्यों अधूरी हर ख्वाहिश मेरी
उन खुसठ खरगोशो के बिन !
…कैसे गुजरा वो एक दिन…
…एक दिन दोस्तों के बिन …
चाल में थी मस्ती उनके
और आँखों में थे दूरबीन
दिल के थे लाख भले वो
पर हरकतों से थे पूरे कमीन
ना था उनमे सलमान कोई
ना ही था कोई उनमे सचिन
फिर क्यू रात अँधेरी मेरी
उन अनजान सितारों के बिन
…कैसे गुजरा वो एक दिन…
…एक दिन दोस्तों के बिन …
कोई डूबा कन्या के जाल में
तो कोई था बस किताबो में तल्लीन
हर कोई था कुछ हट के जरा
थोडा सा मीठा तो थोडा नमकीन
ना था कोई शेक्सपीयर उनमे
ना था कोई अलबर्ट आइन्स्टीन
फिर क्यू खाली दुनिया मेरी
उन महा-नालायक महा-पुरुषो के बिन
…कैसे गुजरा वो एक दिन…
…एक दिन दोस्तों के बिन …
8 responses to ““एक दिन दोस्तों के बिन””
Very Nyc…
This poem has reminded me all my memories…
Very naughty (Sholey – Jay & Virun 😉 ) and touching…
Good Job Man 🙂
LikeLike
mast hai bhai… really wo collage time ki yaad aa gayi..
LikeLike
Awesome lines dear. . .
LikeLike
:)))))))))))))))))))))))))))))))))))))))))))))))))))
LikeLike
touching and feels to be coming straight from heart.
LikeLike
Thanks for your words Priya 🙂
LikeLike
bhai dost ke liye is se achi kavita shayed koi likh paye.
LikeLike
nice line
LikeLike